Friday, August 20, 2010

आज फिर घर जाने का मन है !

शायद आज, फिर घर जाने का मन है,
किवाड़ घर का  खुला होगा ,
पापा वही बैठे चाय पी रहे होंगे,
वो अशोक के पेड़ पर कोयल कुछ बोलती होगी,
नीला आकाश अभी भी स्थिर,
छत पर मेरी राह देखता होगा,

आज फिर घर जाने का मन है.

सोचता हूँ उन लम्हों को,
जब धुप सुबह अंगडाई लेते घर आ जाती थी,
वो मंदिर की घंटी कल कल की कम्पन् धुनी रामाती थी,
दूर कहीं मौलवी की अज़ान सुन जब मैं आखें मसलता उत्ठ्ता था,
टेबल लेम्प स्विच ऑन कर, पढ़ते पढ़ते सोता था.
शायद आज, फिर घर जाने का मन है,

क्या आज भी पुलिया पे रंग वही खिलते हैं,
चाय के प्याले, मंद मुस्कान और किस्से कहानियों के दौर क्या आज भी वहां चलते हैं,
बारिश की उन बूँदें क्या आज भी वहां उमड़ती हैं,
उन मीठी बातों पर क्या आज भी कोई हंसी पिरोता है,
उन फीकी गलियों में क्या आज कोई शोर भरता है....
चलो, देख आता हूँ आज, विचिलित मन आज टोह लेना चाहता है,
क्योंकि आज, फिर घर जाने का मन है . 

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