Friday, July 23, 2010

ये ५ कब बजेंगे !!!!








इस कांच के पिंजरे की चौदहवीं मंजिल की खिड़की से बाहर देख ,
रोज सुबह एक ख़याल दिल में आता है ,
वो छोटी सी चिडया पंख फैलाई नीले आसमान में उडती है...
पास की डेस्क पर पडा बेचैन मोबाइल रह रह कर वाइब्रेट हो रहा है ,
मिठाई की ललक से उठकर दूर की डेस्क पर जा कर लोग फीकी सी बधाई बाँट रहे हैं
कुछ मायूस उँगलियाँ , ज़िन्दगी का गम जावा कोड में दर्ज कर रहीं हैं
कुछ आउटिंग तो , कुछ बिचिंग कर बोझ कम कर रहे हैं ,
दिल में एक ख्वाइश सी जगी है , पलकें भारी और सांस थम रही हैं
और मैं कभी स्क्रीन को तो कभी टास्क बार की घडी को देखता हूँ
इंतज़ार करता हूँ , की ये ५ कब बजेंगे !

कॉफ़ी ठंडी  हो  चली , डेस्क  के  कोने  पर  सुस्त  पड़ी  है
ज़िन्दगी की फिलोसफी  कह कहों में कहीं  फ़सी  है 
दीवारों के  पोस्टर उन्माद  की  चादरों से  ढकें  है ,
पर  व्याकुल मन  डेस्कटॉप पर  पड़े फोल्डर्स छान  रहा है ,
ये रंग सारे स्थिर से  क्यूँ हो  चलें ,पता नहीं
शायद  इनको भी थोडा छलकने  का मन हो.
और मैं, कभी आसमान तो कभी टास्कबार की घडी को देखता हूँ .
सोचता हूँ , ये  ५ कब  बजेंगे !

P.S. Thanks to my dear friend. Mr Yogi. For his unending and unwanted inputs. This poetry wouldn't have been this good, had you not interfered in my thoughts. Also thanks to Balika Vadhu, without her I wouldn't have written sob sob sob..... !!!!

arrgh.. damn, no more than this.

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